Tuesday, August 30, 2016

एक पागल सी लड़की
आधी रात और खिड़की

कई शक, सवाल अनबूझे
अनसुलझे, अनजाने
उसके सपने, छूटे हुए अपने
सवालों से जूझती, लड़ती
अकेले सँवरती, टूटती
एक पागल सी लड़की

एक कदम आगे, दो कदम पीछे
डरती, बहकती, फिर संभलती
लहरों से टकराती, तैरती
खुलखिलाती, सुबकती
फिर मुस्काती, बिगड़ती
एक पागल सी लड़की

ख़ुद में झाँकती, झिझकती
मानती, नकारती
ठानती, फिर हारती
क्यूँ से घबराती
गिरती, आगे बढ़ती,
एक पागल सी लड़की
आधी रात और खिड़की
     

Saturday, July 2, 2016

सत्य कहाँ है, सत्यप्रिय कहाँ है, ‘सत्यकाम’ कहाँ है...

सच की खोज हर ज़माने में हुई है. अब भी जारी है. हर युग का अपना सच होता है. हर इंसान का अपना सच होता है, अपनी परिस्थितियाँ होती हैं. सच्चे सच का सामना करना आज भी उतना ही मुश्किल है. कभी-कभी जब इंसान की प्रगति देखती हूँ, उसकी प्रगति का इतिहास, उसकी प्रगति की गति देखती हूँ तो बेहद आश्चर्य होता है लेकिन उससे ज़्यादा आश्चर्य तब होता है, जब देखती हूँ कि बतौर इंसान उसने कितनी प्रगति की है... उसका ग्राफ़ नीचे जाता दिखाई देता है. लोग कहते हैं, सबका अपना अपना वर्शन होता है; सच का भी और झूठ का भी. अब यही समझ में नहीं आता है, सच एक होता है, उसके वर्शन कैसे हो सकते हैं. सच से जुड़े स्वार्थ अपने अपने हो सकते हैं, लेकिन सच के वर्शन नहीं हो सकते.  
आज़ादी के बाद जाने कितने सत्यप्रिय शहीद हो चुके हैं. सच की साधना कठिन है, सच को साधना कठिन है. सच की राह के साथी नहीं मिलते, सच कोई कहना नहीं चाहता, सच कोई सुनना नहीं चाहता. हाँ, देश के लिए लड़ना और उसके लिए शहीद होने की तर्ज़ पर ही सच के लिए भी लड़ना चाहिए, लेकिन ये काम पड़ोसी के घर हो तो ही अच्छा लगता है.

ख़ैर... मैं उतनी भी निराश नहीं हूँ; ज़िंदगी और सिनेमा, दोनों में सच का इंतज़ार करती हूँ. हम सच कब बनाएंगे, कब देखेंगे, कब लिखेंगे. कब तक झूठे या आधे-अधूरे सच का सिनेमा हमारे लिए बनाया जाएगा, और ऊपर से कहा भी यही जाएगा कि दर्शक (हम) यही देखना चाहते हैं. कब हम तैयार होंगे, सच को फ़िल्मों में देखने के लिए, दिखाने के लिए और झूठ को सिरे से नकारने के लिए!

सच तो यही है कि सच दुर्लभ है, सत्यप्रिय ढूंढ़े से नहीं मिलते; लेकिन फिर सत्यकाम भी तो होते हैं. हमारी चिर प्रतीक्षित आशा है सत्यकाम’. ऋषि दा ने बड़ी ख़ूबसूरती से, सच के आँचल को कांटों की झाड़ियों से, नुकीले पत्थरों से और तीखे नाख़ूनों के वार से बचाकर सामने लाया है. लेकिन शर्मनाक बात है कि सच के सामने जो चुनौतियाँ 1969 में थीं, वही आज भी हैं! वैसे ही फ़िल्मों के सामने भी चुनौतियाँ वही की वही हैं. यही तो सवाल है कि इंसान के बतौर हमारी प्रगति का ग्राफ़ नीचे जाता क्यों दिखता है. आज भी जात-पात का वही मसला है, भष्टाचार की समस्या वैसी है, समाज आज भी खुला नहीं है, भाषा आज राजनीतिक हथियार है, आतंकवाद से तो कई देशों की रोज़ी-रोटी चल रही है. और विडंबना यह है कि हमारी साक्षरता का प्रतिशत बढ़ गया है.

फ़िल्में सिर्फ़ मनोरंजन का ज़रिया नहीं हैं, सार्थक सिनेमा आज की ज़रूरत है. एक और सत्यकाम का हमें इंतज़ार है...

Monday, March 7, 2016

नानी का घर

                                                     नानी का घर 

“नीलू दी, चलो आपको मेरी नानी का घर दिखाऊं,” मैंने बच्चों की-सी खुशी से कहा. हम रेडियो कॉलोनी के पीछे से होकर गुज़र रहे थे. लगा जैसे रास्ते में बचपन की गलियों ने पुकार कर रोक लिया हो. लगा जैसे नानी के घर की बालकनी या सामने के बाग में से बीता बचपन हुलसकर आवाज़ दे रहा है, उसी हुलस से सराबोर होकर ही मैंने नीलू दी को आवाज़ दी थी.

नीलू दी ने भी उसी स्वर में कहा, “हाँ, हाँ चलो!”

मुझे बड़ी हैरानी हो रही थी, क्योंकि जब तक मेरी नानी ज़िंदा रही और हम साल में एक बार उससे मिलने जाते रहे, तब तक भी वो घर कभी नानी का नहीं था. फिर आज अचानक वो घर नानी का घर कैसे हो गया... कैसे घरों, मकानों, छतों, बगीचों, रास्तों और मोड़ों से हम रिश्ते जोड़ लेते हैं. मुझे आज भी याद है जब गर्मियों में इंदौर आते थे मामा के यहां, तो नाना-नानी से मिलने की खुशी के साथ ही उस बड़े से घर में आने का भी जोश रहता था. हालांकि वो घर हमें अपनी हैसियत की याद दिला देता था. ख़ुद पर झूठा-मूठा फ़ख्र होता था कि देखा, हम ऐसे आलीशान घर से रिश्ता रखते हैं. वो तो बहुत बाद में वे नज़रें समझ आईं जिनसे मामा, मामी और उनके बच्चे हमें देखते थे. बहुत बाद में समझ में आया कि मेरे पापा वहां क्यों नहीं जाना चाहते थे. खैर... हम बात कर रहे थे, नानी के घर की, मतलब मामा के घर की...

जी हां, मामा का घर! नानी का घर तो वह कभी था ही नहीं. उस घर में जब भी नानी को देखा – सहमा सहमा-सा, डरा-सा और परेशान देखा. हमारे आने से नानी को बहुत खुशी होती थी जो वह खुलकर बता नहीं पाती थी. नानी का हंसना, मुस्काना, डांटना, हमें चुप करना अब भी यादों में वैसे ही बसा हुआ है, जैसे कल ही की बात हो. नानाजी को हमसे कोई ख़ास प्यार नहीं था, हमारा भी उनकी ओर रवैया वैसा ही कुछ था. उनके लिए उनकी पोतियां ही जैसे सब कुछ थीं. हमें भी उनसे कोई ख़ास उम्मीद नहीं थी. मामा का सब कुछ उसके मूड पर था. मामी भी उस समय तक ठीक ठाक ही थीं. ख़ैर... हम बात कर रहे थे, नानी के घर की.

घर के सामने खुला मैदान था, जिसे अब चारों से घेर दिया गया है. वह घेरा मैदान पर नहीं मानों किसी ने घर के सामने खींच दिया हो. मानों रिश्तों के आस-पास खींच दिया हो. पहले बालकनी में बैठते थे, तो मैदान के उस पार के बंगले, दो-तीन प्रोविजन स्टोर और गलियां तक दिख जाती थीं, अब मैदान की दीवारें ही दिखती होंगी. सोचते-सोचते दीवारों का घेरा मन को भी घेरने लगता है. पता नहीं क्या-क्या याद आने लगता है. एक एक करके अपने मन के अंदर की परतें खुलने लगती हैं... क्या-क्या समाया रहता है.

“मैंने कहा न, तुम दोनों को जाना है, तो इसी वक्त जा सकती हो. मैं उसको फ़ोन कर देता हूँ, वह आकर ले जाएगा,” मामा चिल्लाया था. मौसी की आवाज़ उससे भी तेज़ थी, “अभी इतनी ताकत है कि अपना और मां का ध्यान रख लूं, तुझे चिंता करने की ज़रूरत नहीं है....” वह गुस्से और दुःख से काँप रही थी. नानी बिचारी के तो बोल ही नहीं फूट रहे थे, रोती जा रही थी.... आज मैं उसके दर्द का अंदाज़ ही लगा सकती हूँ, शायद अंदाज़ लगाना भी मुश्किल ही है. भैया, जो दो साल से इंदौर में नौकरी कर रहा था, वह आया और दोनों को आधी रात को अपने घर ले आया. नानाजी दुनिया छोड़ चुके थे. यानी नानी और मौसी दोनों अकेली थीं, विधवा भी थीं. आज सोचती हूँ जब कि मेरी शादी हो चुकी है, मेरे भी माँ-बाप बूढ़े हैं, तो दिल जैसे रोने को हो आता है. आज कभी सोचती हूँ तो कलेजा मुँह को आ जाता है, कैसा लगा होगा, उस विधवा माँ और बहन को.... जिनके पास रिश्तों की जमा-पूंजी के नाम पर बेटा और भाई यानी मेरा मामा ही रह गया था. उन्हें अपनी ज़िंदगी में शामिल करने की जगह आधी रात को घर से बाहर का रास्ता दिखा रहा था. 

फ़्लैशबैक में वो वाकया याद आया जब एक बार मैंने परेशान होकर अपने भैया को फ़ोन किया था. मेरे भाई ने इतना ही कहा था, “तू तो वापस आ जा, एक रोटी होगी, तो आधी-आधी खा लेंगे.” ये सब सोचते-सोचते, लिखते-लिखते भी आँसू आ जाते हैं! ये एहसास सिर्फ़ शादीशुदा बेटियां और बहनें समझ सकती हैं कि कैसे भाई-बहन का रिश्ता ज़िंदगी की सबसे बड़ी ताकत होता है. एहसासों की वह डोर जिससे भाई-बहन बंधे हुए होते हैं, उसकी मज़बूती का एहसास पूरी शिद्दत से हुआ था मुझे. खैर... उस रात के बाद नानी एकदम ही टूट गई थी. नानी हमेशा के लिए दूसरी मौसी के यहां चली गई. और हमारा मामा के घर जाने का सिलसिला टूट गया था. तब तक हम भी समझ गए थे कि हमारी चाहत दूसरे रिश्तों से नहीं थी, बल्कि नानी से थी... उस घर से थी... जो नानी का नहीं था, मामा का था. और जो कुछ रिश्ता था, वह मामा से बिल्कुल भी नहीं था, नानी से था, सिर्फ़ नानी से....

नानी जैसा भरपूर और अपने वक्त से आगे वाला किरदार उस दौर में मैंने दूसरा नहीं देखा था. अब तो आधुनिकता के नाम पर पता नहीं क्या-क्या देख रही हूँ. मेरे नाना-नानी ने लव मरिज की, नानी ने शादी के बाद पढ़ाई पूरी की और सरकारी नौकरी की. अपना बुढ़ापा अपनी पेंशन पर काटा. नानी कई मायनों में मेरी मां और मौसियों से भी आधुनिक विचारों की थी. जब वो मामा के घर पर नहीं होती थी, तब उसका व्यवहार, बोलने का तरीका, सोचने का ढंग सब कुछ उसके अगली पीढ़ी के होने का एहसास दिला देते थे. दूसरों से उसके बर्ताव में शाही अंदाज़ की झलक थी. उसके व्यक्तित्व में ग़जब की ठसक थी, लेकिन मामा के घर पर जैसे वह एक डरी-दुबकी बकरी जैसी हो जाती थी, जिसे बोलने, हंसने, चलने, खाने-पीने सबमें डर लगता था. जहां उसके और नानाजी के लिए एक कमरा निश्चित था, जिससे बाहर आना भी मामा-मामी की मर्ज़ी के बगैर संभव नहीं था. वह मुझे दबे लफ़्ज़ों में डांटती थी, लेकिन उसकी भरपूर इच्छा थी कि मैं कुछ ऐसा करूं कि उसकी पोतियों के सामने उसका सिर फ़ख़्र से ऊंचा हो जाए. खैर, उसकी डांट से डरता कौन था...! आवाज़ तो निकलती नहीं थी!! यहां मैं भी किसके बाप से डरती थी. बस, इसी से बिचारी नानी डरती थी!!    
  
मुझे आज भी याद है नानी ने मेरे फ़र्स्ट आने पर मुझे पैसे दिए थे और पेन दिया था, लेकिन फिर यह भी कहा था कि ‘किसी को बताना मत, हं...!’ मुझे उस समय बड़ा अपमानजनक लगा था. मैंने कहा, “तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो मत दो. इसमें छिपाने की क्या बात है...” तब उसने लगभग घिघियाकर ही मुझे चुप रहने के लिए कहा था. बाद में उसका डर भी तब मैं समझ पाई थी, जब वह मामा के घर के बाहर निकली.  

नानी मुझसे बहुत बात करती थी. वो उबर गई थी, बेटे के मोह से. थक गई थी, झूठे जज़्बात लादे-लादे. अब उसने वह सब छोड़ दिया था. जब हमारे पास रहने आई, तब उसकी और मेरी दोस्ती हो गई थी. वो हद दर्जे की उन्मुक्त महिला थी! मेरे एक सरदार मित्र को मन ही मन मेरे लिए पसंद करती थीं. बातों ही बातों में सारी जानकारी निकालने की कोशिश करती, शरारत से मुझे देखती, भेद भरी निगाहों से घूरती, जैसे कोई सुराग पाना चाहती हो. मुझपे विश्वास बहुत था उसे और मुझसे ज़्यादा मेरे सरदार मित्र पर. उस बेचारे को तो पता भी नहीं था कि नानी के दिमाग़ में क्या खिचड़ी पक रही थी. नानी की सोच मुझे पता थी...! मेरे लिए ज़्यादा आश्चर्यजनक यह था कि पिछली पीढ़ी की होने के बावजूद उसके दिमाग़ में कोई जाले नहीं थे!! कहती थी, ‘शादी उससे करना जो तुझे प्यार करे, उससे नहीं, जिसे तू प्यार करे. लेकिन सबसे पहले ये देख कि वह कमाता कितना है!’ उस दिन जब मैंने बताया कि उसकी शादी होने वाली है... मेरी नानी बड़ी दुःखी हुई! लेकिन अगले ही पल मुस्काई, बोली, ‘कोई बात नहीं, तुम्हारे लिए रिश्तों की कमी है क्या!!” आज नानी नहीं है लेकिन उसकी मुस्कान मुझे आज भी याद आती है, हर बात पर उसकी दी जाने वाली मिसालें याद हैं. खुलकर हंसना और फिर शर्माकर चुप हो जाना, सब याद है.


नानी का बोलना कम हो गया था, लेकिन जब वो बोलती तो ग़ज़ब के आत्म-विश्वास से बोलती थी. मां के अंदर कितना-कुछ टूट जाता होगा जब अपना ही ख़ून बदल जाता है. कितना सूनापन अंदर तक भर जाता होगा. कितनी बार वह मरती होगी और जी उठती होगी इस आस में कि उसका बेटा आएगा.


लेकिन जो एक चीज़ कभी नहीं बदली, वह था उसका डर....! मामा-मामी से डर. जब नानी ने यह दुनिया छोड़ी, तब मेरी मौसी बताती है कि उसके चेहरे पर ऐसी शांति थी, ऐसा सुकून था, जो उसे ज़िंदगी भर ना मिला. इतनी शांति से गई जैसे कोई दर्द ही नहीं हुआ. शायद उसे राहत ही मिली होगी. चाहे बता पाए या नहीं, लेकिन माँ अपने बच्चों का इंतज़ार किस व्यग्रता से करती है, यह एक माँ ही समझ सकती है, मौत ने भी नानी को उतना दर्द नहीं दिया होगा जितना मामा के व्यवहार ने दिया था. नानी के मन का वह डर खत्म हो चुका था, बार-बार बेटे से मिलने वाले तिरस्कार का डर... वह डर कि कहीं उसे इंदौर ना जाना पड़ जाए – मामा के घर... मामा के घर का डर. मामा के घर जाने का ज़िक्र होते ही जैसे वह मिमियाने लगती, आज याद करती हूँ तो मन घृणा से भर जाता है, मामा-मामी के लिए भरपूर गुस्सा भर आता है, मामा के बच्चों में अपने माँ-बाप के ही संस्कार हैं. पता नहीं कौन, कहाँ है. न जानने की इच्छा ही है.... कैसे बच्चे होंगे जो अपने माँ-बाप की ऐसी हालत कर देते हैं. कभी-कभी कहीं से जब पता चलता है कि मामा-मामी ठीक नहीं हैं, तो कुछ महसूस ही नहीं होता. क्योंकि उनका ज़िक्र आता है, तो याद आ जाता है नानी का डर. बेटे के इंतज़ार का दर्द सहती माँ का डर, बेटे से टूटती अपेक्षाओं का दंश... मामा-मामी के अकेलेपन की ख़बर से शायद भीतर ही भीतर मुझे खुशी ही होती है, राहत ही मिलती है. हमने देखा था नानी को इंदौर जाने के ख़याल से काँपते हुए... रोते हुए... इसीलिए शायद मेरे मन में सिर्फ़ रिश्ते नहीं मर गए, ये घर भी मर गया था... लेकिन उस घर की यादें नहीं मरीं क्योंकि असल में वो यादें नानी के घर थीं, नानी से ही वह घर था. उसकी हंसी, सहमी हुई नसीहतें, मुझे लेकर उसका गर्व का भाव, सब कुछ का केंद्र वही था – घर. नानी की वजह से वह घर याद आता है... ज़िंदगी भर जिसे मामा का घर कहते आए थे, वह घर वास्तव में नानी का था.... मेरी नानी का घर....!!!